आज बिरसा मुंडा की 148वीं जयंती है। बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को छोटानागपुर के उलिहातु गाँव में हुआ था, जो अब झारखंड में स्थित है। बिरसा मुंडा भारतीय इतिहास के सबसे सम्मानित आदिवासी नेताओं में से एक हैं। उनका जीवन साहस, दृढ़ता और अन्याय के खिलाफ संघर्ष की एक अद्भुत कहानी है।
बिरसा मुंडा का जन्म मुंडा जनजाति में हुआ था, जो उस क्षेत्र की प्रमुख जनजाति थी। मुंडा जनजाति के लोग सदियों से जंगलों और पहाड़ों में रहते आए हैं। वे खेती और शिकार से अपनी आजीविका चलाते थे। लेकिन ब्रिटिश काल में, उनकी जमीनें छीनी जाने लगीं और अंग्रेजों ने भारी कर लगा दिए। मुंडा जनजाति का पारंपरिक जीवन संकट में आ गया था।
बिरसा मुंडा का परिवार गरीब था। उनके माता-पिता, सुगना मुंडा और कर्मी हातु, खेतिहर मजदूर थे। उनके लिए जीवन आसान नहीं था। वे दिन-रात मेहनत करते थे, फिर भी मुश्किल से गुज़ारा होता था। बिरसा ने बचपन से ही अपनी समुदाय के लोगों की कठिनाइयाँ और अन्याय देखा। ब्रिटिश अधिकारियों और स्थानीय ज़मींदारों द्वारा किए जा रहे शोषण का उनके मन पर गहरा असर पड़ा।
बिरसा मुंडा बाकी बच्चों से अलग थे। वे तेज और जिज्ञासु थे। उन्होंने एक मिशनरी स्कूल में पढ़ाई की, जहाँ उन्होंने पढ़ना-लिखना सीखा। लेकिन आर्थिक तंगी के कारण उनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई। इसके बावजूद, बिरसा ने अपने आस-पास की दुनिया से सीखना जारी रखा। वे अपनी जनजाति के गीतों, कहानियों और परंपराओं से बहुत प्रभावित थे।
अपने किशोरावस्था के दिनों में, बिरसा ने आदिवासी समुदायों के खिलाफ हो रहे अन्याय के बारे में बोलना शुरू किया। उन्होंने अपने लोगों को ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियों का विरोध करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अपने संस्कृति, जमीन और अधिकारों की रक्षा की ज़रूरत पर जोर दिया। बिरसा के संदेश ने आदिवासी लोगों के दिलों को छू लिया, और वे उन्हें अपना नेता मानने लगे।
बिरसा मुंडा का प्रभाव तेजी से बढ़ा। जल्द ही वे आदिवासी समुदायों के लिए उम्मीद की किरण बन गए। उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ मुंडा विद्रोह का नेतृत्व किया, जिसे "उलगुलान" (महान क्रांति) के नाम से भी जाना जाता है। इस विद्रोह का उद्देश्य मुंडा लोगों के भूमि अधिकारों को पुनः स्थापित करना और उनके पारंपरिक जीवन को बचाना था।
बिरसा मुंडा का आंदोलन केवल भूमि पुनः प्राप्ति तक सीमित नहीं था। यह एक आध्यात्मिक आंदोलन भी था। उन्होंने खुद को एक पैगंबर के रूप में घोषित किया, जिसे भगवान ने अपने लोगों को बचाने के लिए भेजा था। उन्होंने अपने अनुयायियों को मिशनरियों के प्रभाव को अस्वीकार करने और अपनी मूल आस्था में लौटने के लिए प्रेरित किया। उनके उपदेश सरल थे, लेकिन प्रभावशाली थे। उन्होंने एकता, साहस और प्रतिरोध की बात की।
ब्रिटिश अधिकारी बिरसा के बढ़ते प्रभाव से चिंतित हो गए। उन्होंने उन्हें अपने शासन के लिए एक खतरे के रूप में देखा। 1895 में, बिरसा को गिरफ्तार कर दो साल के लिए जेल में डाल दिया गया। जेल से रिहा होने के बाद, उन्होंने ब्रिटिशों के खिलाफ संघर्ष जारी रखा। हालांकि, विद्रोह को ब्रिटिश सेना ने बेरहमी से कुचल दिया। अंततः 1900 में बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें रांची की जेल में बंद कर दिया गया, जहाँ 9 जून 1900 को मात्र 25 साल की उम्र में उनकी रहस्यमयी परिस्थितियों में मृत्यु हो गई।
बिरसा मुंडा की विरासत आज भी जीवित है। उन्हें आदिवासी लोगों के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले एक नायक के रूप में याद किया जाता है। उनका जीवन और संघर्ष आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करता है। आज, वे अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध के प्रतीक हैं। उनकी जयंती विशेष रूप से झारखंड में बड़े श्रद्धा के साथ मनाई जाती है, जहाँ उन्हें एक देवता के रूप में पूजा जाता है।
भारतीय सरकार ने भी उनके योगदान को मान्यता दी है। रांची का हवाई अड्डा और झारखंड में एक विश्वविद्यालय का नाम उनके नाम पर रखा गया है। देश के विभिन्न हिस्सों में बिरसा मुंडा की प्रतिमाएँ और स्मारक स्थापित किए गए हैं।
बिरसा मुंडा की कहानी आदिवासी समुदायों की शक्ति और संघर्ष की याद दिलाती है। न्याय और समानता के लिए उनका संघर्ष हाशिए पर पड़े और उत्पीड़ित लोगों को प्रेरणा देता है। जब हम आज उनके जन्मदिन को याद करते हैं, तो हमें उन मूल्यों को भी याद करना चाहिए जिनके लिए वे खड़े थे – साहस, एकता और गरिमा के साथ जीने का अधिकार।
0 Comments